होली क्यों मनाते है  – WHY CELEBRATE HOLI?

देश-विदेश में मनाया जानेवाला होली का त्यौहार रंगोंके साथ उत्साह तथा आनंद लेकर आता है । प्रदेशानुसार फाल्गुनी पूर्णिमा से पंचमी तक पांच-छः दिनोंमें, कहीं दो दिन, तो कहीं पांचों दिन यह त्यौहार मनाया जाता है । इसे विभिन्न प्रकार से ही सही; परंतु बडी धूमधाम से मनाया जाता है । सबका उद्देश्य एक ही होता है, कि आपसी मनमुटावोंको त्याग कर मेलजोल बढे !

होली एक देवी हैं । षड्विकारों पर विजय प्राप्त करने की क्षमता होलिका देवी में है । इस हेतु होलिका देवी से प्रार्थना की जाती है । इसलिए होली को उत्सव के रूप में मनाते हैं ।

होली क्यों मनाते है ?


होली यह अग्नि देवता की उपासना का एक अंग है । अग्नि देवता की उपासना से व्यक्ति में तेज तत्त्व की मात्रा बढने में सहायता मिलती है । होली के दिन अग्नि देवता का तत्त्व २ प्रतिशत कार्यरत रहता है । इस दिन अग्नि देवता की पूजा करने से व्यक्ति को तेज तत्त्व का लाभ होता है । इससे व्यक्ति में से रज-तम की मात्रा घटती है । इसीलिए होली के दिन अग्नि देवता की पूजा कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है । सार्वजनिक रूप से मनाई जानेवाली होली रात में मनाई जाती है ।

होली का इतिहास
भविष्यपुराण में एक कथा है । प्राचीन समय में ढुंढा अथवा ढौंढा नामक राक्षसी एक गांव में घुसकर बालकोंको कष्ट देती थी । वह रोग एवं व्याधि निर्माण करती थी । उसे गांव से निकालने हेतु लोगोंने बहुत प्रयत्न किए; परंतु वह जाती ही नहीं थी । अंत में लोगोंने अपशब्द बोलकर, श्राप देकर तथा सर्वत्र अग्नि जलाकर उसे डराकर भगा दिया । वह भयभीत होकर गांव से भाग गई । इस प्रकार अनेक कथाओंके अनुसार विभिन्न कारणोंसे इस उत्सव को देश-विदेश में विविध प्रकार से मनाया जाता है ।

होली कैसे मनाएं ?

कई स्थानोंपर होली का उत्सव मनाने की सिद्धता महीने भर पहले से ही आरंभ हो जाती है । इसमें बच्चे घर-घर जाकर लकडियां इकट्ठा करते हैं । पूर्णिमा को होली की पूजा से पूर्व उन लकडियों की विशिष्ट पद्धति से रचना की जाती है । तत्पश्चात उसकी पूजा की जाती है । पूजा करने के उपरांत उस में अग्नि प्रदीप्त (प्रज्वलित) की जाती है । होली प्रदीपन की पद्धति समझने के लिए हम इसे दो भागों में विभाजित करते हैं –

१. होली की रचना तथा
२. होली का पूजन एवं प्रदीपन

होली की रचना के लिए आवश्यक सामग्री
अरंड अर्थात कैस्टरका पेड, माड अर्थात कोकोनट ट्री, अथवा सुपारीके पेडका तना अथवा गन्ना । ध्यान रहें, गन्ना पूरा हो । उसके टुकडे न करें । मात्र पेडका तना पांच अथवा छः फुट लंबाईका हो । गायके गोबरके उपले अर्थात ड्राइड काऊ डंग, अन्य लकडियां ।

होली कहां जलानी चाहिए ?

सामान्यत: ग्रामदेवताके देवालयके सामने होली जलाएं । यदि संभव न हो, तो सुविधाजनक स्थान चुनें ।

होली की रचना कैसे करें ?

१. जहां होली जलानी हो, उस स्थान पर सूर्यास्त के पूर्व झाडू लगाकर स्वच्छ करें ।

२. उस स्थान पर गोबर मिश्रित पानी छिडके ।

३. अरंडी का पेड, माड अथवा सुपारी के पेड का तना अथवा गन्ना उपलब्धता के अनुसार खडा करें ।

४. चारों ओर उपलों एवं लकडियों की शंकु समान रचना करें ।

५. रंगोली बनाएं ।

होलिका-पूजन एवं प्रदीपन हेतु आवश्यक सामग्री

पूजाकी थाली, हल्दी-कुमकुम, चंदन, फुल, तुलसीदल, अक्षत, अगरबत्ती घर, अगरबत्ती, फुलबाती, निरांजन, कर्पूर, कर्पूरार्ती, दियासलाई अर्थात मॅच बाक्स्, कलश, आचमनी, पंचपात्र, ताम्रपात्र, घंटा, समई, तेल एवं बाती, मीठी रोटीका नैवेद्य परोसी थाली, गुड डालकर बनाइ बिच्छूके आकारकी पुरी अग्निको समर्पित करनेके लिए.

होली की पूजा कैसे करें ?

१. सूर्यास्त के समय पूजनकर्ता शूचिर्भूत होकर होलिका पूजन के लिए पूजा स्थान पर रखे पीढे पर बैठें ।

२. आचमन कर होलिका पूजन का संकल्प करें ।
‘काश्यप गोत्रे उत्पन्नः विनायक शर्मा अहं । मम सपरिवारस्य श्रीढुंढाराक्षसी प्रीतिद्वारा तत्कर्तृक सकल पीडा परिहारार्थं तथाच कुलाभिवृद्ध्यर्थंम् । श्रीहोलिका पूजनम् करिष्ये ।’

३. चंदन एवं पुष्प चढाकार कलश, घंटी तथा दीप का पूजन करें ।

४. तुलसी के पत्ते से पूजा साहित्य पर प्रोक्षण करें ।

५. कर्पूर की सहायता से होलिका प्रज्वलित करें ।

६. होलिका पर चंदन, हल्दी, कुमकुम चढाकर (इसी क्रम से) पूजन आरंभ करें । उसके उपरांत पुष्प चढाएं, अगरबत्ती दिखाएं एवं दीप जलाएं (इसी क्रम से) ।

७. होलिका को मीठी रोटी का नैवेद्य अर्पित कर प्रदीप्त होली में निवेदित करें ।

८. दूध एवं घी एकत्रित कर उसका प्रोक्षण करें ।

९. होलिका की तीन परिक्रमा लगाएं ।

१०. परिक्रमा पूर्ण होने पर मुंहपर उलटे हाथ रखकर ऊंचे स्वर में चिल्लाएं ।

११. गुड एवं आटेसे बने बिच्छू मंत्रपूर्वक अग्नि में समर्पित करें ।

१२. सब मिलकर अग्निके भयसे रक्षा होने हेतु प्रार्थना करें ।

१३. होली के दूसरे दिन होली पर, दूध एवं पानी छिडककर उसे शांत किया जाता है तथा उसकी राख शरीर पर लगायी जाती है ।

कई स्थानों पर होली के शांत होने से पूर्व इकट्ठे हुए लोगों में नारियल, चकोतरा (जिसे कुछ क्षेत्रो में पपनस कहते हैं – नींबू की जाति का खट्टा-मीठा फल) जैसे फल बांटे जाते हैं । कई स्थानों पर सारी रात नृत्य-गायन में व्यतीत की जाती है ।

धूलिवंदन

होली के दिन प्रज्वलित की गई होली में प्रत्यक्ष अग्निदेवता उपस्थित रहते हैं । उनका तत्त्व दूसरे दिन भी कार्यरत रहता है । इस तत्त्व का लाभ प्राप्त करने हेतु तथा अग्निदेवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु होली के दूसरे दिन अर्थात फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा को सुबह होली के राख की पूजा करते है । उसके उपरांत उस राख को शरीरपर लगाकर स्नान करते हैं । इसे धूलिवंदन कहते है ।

धूलिवंदन कैसे मनाएं ?

१. होलिका दहन के दूसरे दिन सूर्योदय के समय होली के स्थान पर पहुंचे ।

२. होली पर दूध एवं पानी छिडककर उसे शांत करें ।

३. होली की विभूति को वंदन कर प्रार्थना करें …

वन्दितासि सुरेन्द्रेण ब्रह्मणा शङ्करेण च ।
अतस्त्वं पाहि नो देवि भूते भूतिप्रदा भव ।।

अर्थ : हे धूलि, तुम ब्रह्मा-विष्णु-महेश द्वारा वंदित हो, इसलिए विभूति देवी, तुम हमें ऐश्वर्य देनेवाली बनो एवं हमारी रक्षा करो ।’

४. पश्चात् नीचे बैठकर होली की विभूति को अंगूठा तथा मध्यमा की चुटकी में लेकर मध्यमा से अपने माथे पर अर्थात आज्ञाचक्र पर लगाएं ।

५. उसके उपरांत वह विभूति पूरे शरीर पर लगाएं ।

होली के दिन की जानेवाली कुछ कृतियों का शास्त्र
होली के दिन उलटा हाथ मुंहपर रखकर क्यों चिल्लाते है ?

चिल्लाने की क्रिया से व्यक्ति पर आध्यात्मिक उपाय होते हैं । परिणाम स्वरूप उसके देह के चारों ओर आया काला आवरण तथा देह में विद्यमान काली शक्ति दोनों प्रवाह के रूप में बाहर फेंकी जाती है एवं नष्ट होती हैं । शास्त्र में बताई गई यह विधि कुछ ही प्रदेशों में, विशेष कर महाराष्ट्र में की जाती है । किन्तु कुछ स्थानों पर इसका स्वरूप आज विकृत एवं विभत्स हो गया है ।

होली की रचना करते समय उसका आकार शंकु समान होने का शास्त्राधार

१. होली की रचना शंकु समान आकार में करने पर, अग्निस्वरूपी तेज तत्त्व घनीभूत होकर भूमंडल पर आच्छादित होता है । इस तेज तत्त्व के कारण पाताल से भूगर्भ की दिशा में प्रक्षेपित होनेवाली कष्टदायक स्पंदनों से भूमि की रक्षा होती है ।

२. तेज तत्त्व के अधिष्ठान से भूमंडल में विद्यमान स्थान देवता, वास्तु देवता एवं ग्राम देवता जैसे देवताओं के तत्त्व जागृत होते हैं । इससे भूमंडल में विद्यमान अनिष्ट शक्तियों के उच्चाटन का कार्य सहजता से हो सकता है ।

३. होली का शंकु समान आकार इच्छा शक्ति का प्रतीक है । अतः शंकु के आकार में घनीभूत अग्निरूपीय तेज के संपर्क में आने से व्यक्ति की मनःशक्ति जागृत होने में सहायता होती है । इससे व्यक्ति की कनिष्ठ मनोकामनाएं पूर्ण होती है एवं व्यक्ति को इच्छित फलप्राप्ति होती है ।

होली की एक पुरुष जितनी ऊंचाई होना क्यों आवश्यक है ?

होली के मध्य में खडा करने के लिए विशिष्ट पेडों का ही उपयोग क्यों किया जाता है ?

होली की रचना में गाय के गोबर से बने उपलोंके उपयोग का महत्त्व

होली में अर्पण करने के लिए मीठी रोटी बनाने का शास्त्रीय कारण

होली का महत्त्व

होली का संबंध मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन से है, साथ ही साथ नैसर्गिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक कारणोंसे भी है । यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है । दुष्प्रवृत्ति एवं अमंगल विचारोंका नाश कर, सद्प्रवृत्ति का मार्ग दिखानेवाला यह उत्सव है । अनिष्ट शक्तियोंको नष्ट कर ईश्वरीय चैतन्य प्राप्त करने का यह दिन है । आध्यात्मिक साधना में अग्रसर होने हेतु बल प्राप्त करने का यह अवसर है । वसंत ऋतु के आगमन हेतु मनाया जानेवाला यह उत्सव है । अग्नि देवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का यह त्यौहार है ।

भावपूर्ण होली मनाने के लाभ

होली के दिन होली प्रज्वलित करने के रूप में यज्ञ करने से ब्रह्मांड में विद्यमान देवता तत्त्व की तरंगें कार्यरत होती हैं एवं यज्ञ की ओर आकृष्ट होती हैं । मंत्रों द्वारा इन तरंगों का आवाहन किया जाता है अर्थात कार्यरत किया जाता है । यज्ञ में हविर्द्रव्य अर्पित करने से अग्नि प्रदीप्त होती है । उसकी ज्वाला के कारण उत्पन्न वायु से आसपास का वायुमंडल शुद्ध तथा सात्त्विक बनता है । इसका अर्थ है, वायुमंडल देवता तत्त्वों को आकर्षित करने योग्य बनता है । पंच-तत्त्वों की सहायता से देवता तत्त्वों की तरंगें इस वायुमंडल की कक्षा में प्रवेश करती हैं इससे जीव देवता तत्त्व को अनुभूत कर पाता है ।

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