श्राद्ध की परिभाषा एवं अर्थ  ? – Definition and meaning of Shraaddh

पितरों के उद्देश्य से विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है उसे श्राद्ध कहते है–

श्रद्धयापितृन्उद्दिष्यविधिनाक्रियतेयत्कर्मतत्_श्राद्धम्!

श्रद्धा से ही श्राद्ध की निष्पत्ति होती है!

श्रद्धार्थ मिदंश्राद्धम् श्रद्धया कृतं सम्पादितं श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छ्राद्धम् तथा श्रद्धादौ इदं श्राद्धम्।

अर्थात अपने मृत पितृगणों के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किया जाने वाला कर्मविशेषं को श्राद्ध शब्द के नाम से जाना जाता है।
इसे ही पितृयज्ञ भी कहते हैं!जिसका वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों ,पुराणों ,वीरमित्रोदय ,श्राद्धकल्पलता, श्राद्ध तत्व ,पितृदयिता आदि अनेक ग्रंथो में प्राप्त होता है।

महर्षि पराशर के अनुसार देश,काल तथा पात्र में हविष्यादि विधिद्वार जो कर्म तिल(यव)और दर्भ (कुश)तथा मन्त्रो से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाए वही श्राद्ध है।
महर्षि वृहस्पति तथा श्राद्ध तत्व में वर्णित महर्षि पुलस्त्य के अनुसार–
जिस कर्म विशेष में दुग्ध-घृत-मधु से युक्त सुसंस्कृत (अच्छी प्रकार से पकाए हुये)उत्तम व्यंजन को श्रद्धापूर्वक पितृगण के उद्देश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाए,उसे श्राद्ध कहते है!
इसी प्रकार ब्रह्मपुराण में भी श्राद्ध का लक्षण लिखा हुआ है–देश काल और पात्र में विधिपूर्वक श्रद्धा से पितरों के उद्देश्य से जो ब्राह्मण को दिया जाए उसे श्राद्ध कहते है। #देशेकालेपात्रेविधिनाहविषाच_यत्।

तिलैर्दर्भैश्च मन्त्रैश्च श्राद्धम् स्याच्छ्रद्धयायुतम्।।

संस्कृतं व्यंजनाद्यंच पयोम धुघृता न्वितम्।

श्रद्धया दीयते यस्माच्छ्राद्धं तेन निगद्यते।।

देशे कालेपात्रेश्रद्धया विधिना यत्।

पितृनुद्दिष्य विप्रेभ्योदत्तं श्राद्ध मुदाहृतम्।।


श्राद्ध कर्ता का भी कल्याण–!!

जो प्राणी विधिपूर्वक शान्तमन होकर श्राद्ध कर्ता है,वह सभी पापों से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त होता है तथा फिर संसार चक्र में नही आता ।

योनेन विधिना श्राद्धं कुर्याद्वै शान्त मानस:!

व्यपेत कल्मषो नित्यं याति नावर्ततेपुनः!!

अतः प्राणी को पितृगण की संतुष्टि तथा अपने कल्याण के लिये भी श्राद्ध करना चाहिये।
इस संसार मे श्राद्ध करने वाले के लिये श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणकारक उपाय नही है।
इस तथ्य की पुष्टि महर्षि सुमन्तु द्वारा की गयी है—-:

श्राद्धात्परतरं नान्य च्छ्रेयस्कर मुदाहृतम्।

तस्मात् सर्व प्रयत्नेन श्राद्धं कुर्या द्विचक्षण:!!

अर्थात-इस जगत में श्राद्ध से श्रेष्ठ अन्य कोई कल्याणप्रद उपाय नही है,अतः वुद्धिमान मनुष्य को यत्नपूर्वक श्राद्ध करना चाहिये
इतना ही नही ,श्राद्ध अपने अनुष्ठाता की आयु बढ़ा देता है,पुत्र प्रदानकर कुल-परम्परा को अक्षुण्ण रखता है,धन-धान्य की वृद्धि करता है, शरीर मे बल पौरुष की वृद्धि का संचार करता है, पुष्टि प्रदान करता है और यश का विस्तार करते हुए सभी प्रकार का सुख प्रदान करता है!
यथा–: #आयु:#पुत्रान्यथास्वर्गंकीर्तिंपुष्टिंबलंश्रियम्।

पशून् सौख्यं धनंधान्यं प्राप्नुया यात्पि तृपूजनात्।।


||—#श्राद्धसेमुक्ति—||
इस प्रकार श्राद्ध सांसारिक जीवन को सुखमय तो बनाता ही है, परलोक भी सुधारता है और अंत मे मुक्ति भी प्रदान करता है–

आयु:प्रजांधनं विद्यांस्वर्गं मोक्षंसुखानिच ।

प्रयच्छन्ति तथा राज्यंपितरःश्राद्ध तर्पिता:।।

मार्कण्डेय पुराण
अर्थात श्राद्ध से संतुष्ट होकर पितृगण श्राद्ध कर्ता को दीर्घ आयु ,सन्तति,धन, विद्या,राज्य ,सुख,स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करते है।
अत्रि संहिता का वचन है–जो पुत्र भ्राता पौत्र अथवा दौहित्र आदि पितृकर्म (श्रद्धानुष्ठान)-में संलग्न रहते हैं ,वे निश्चय ही परमगति को प्राप्त होते हैं।

पुत्रोभ्रातरोवापि दौहित्र: पौत्रकस्तथा!

पितृकार्येप्रसक्तायेतेयान्तिपरमांगतिम्।।(सुमन्तु)

यहां तक लिखा है कि जो श्राद्ध कर्ता है ,जो उसके विधि विधान को जानता है, जो श्राद्ध करने की सलाह देता है प्रेरित करता है और जो श्राद्ध का अनुमोदन करता है –इन सबको श्राद्ध का पुण्य फल अवश्य प्राप्त होता है। #उपदेष्टानुमन्तालोकेतुल्यफलौस्मृतौ–बृहस्पति


श्राद्ध करने से हानि—-इसलिये श्राद्ध अवश्य करे||

शास्त्र ने श्राद्ध न करने से होनेवाली जो हानि बताई है उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते है।
अतः श्राद्ध तत्व से परिचित होना तथा उसके अनुष्ठान के लिये तत्पर रहना अत्यंत आवश्यक है।
यह सर्वविदित है कि मृत व्यक्ति इस महायात्रा में अपना स्थूल शरीर भी नही ले जा सकता है तब पाथेय (अन्न जल)कैसे ले जा सकते है?
उस समय उसके सगे सम्बन्धी श्राद्ध विधि से जो कुछ देते हैं, वही उसे मिलता है।शास्त्र ने मरणोपरांत पिंडदान की व्यवस्था की है, सर्वप्रथम शवयात्रा के अंतर्गत छ:पिंड दिए जाते है
जिनसे भूमि के अधिष्ठातृ देवताओं की प्रसन्नता तथा भूत -पिशाचों द्वारा होनेवाली वाधाओं का निराकरण आदि प्रयोजन सिद्ध होते हैं।
इसके साथ ही दशगात्र में दिए जानेवाले दश पिंडो के द्वारा जीव को आतिवाहक सूक्ष्म शरीर प्राप्त होता है।
मृत व्यक्ति की महायात्रा के प्रारम्भ की बात हुई ।
अब आगे उसे पाथेय (रास्ते के भोजन –अन्न जल आदि–)की आवश्यकता पड़ती है, जो उत्तम षोडसी में दिए जाने वाले पिण्डदान से उसे प्राप्त होता है।यदि सगे -सम्बन्धी पुत्र -पौत्रादि न दे तो भूख-प्यास से उसे वहां महादारुण दुख होता है—-:::
#लोकांतरेषुयेतोयंलभन्तेनान्यमेव_च।

दत्तंवंशजैर्येषां तेव्यथांयान्ति दारुणम्।—सुमन्तु..

#श्राद्धकरनेवालेकोकष्ट—। श्राद्ध न करने वाले को भी पग पग पर कष्ट का सामना करना पड़ता है। मृत प्राणी बाध्य होकर श्राद्ध न करनेवाले अपने सगे सम्बन्धियो का रक्त चूसने लगता हैं—-: #श्राद्धंकुरुतेमोहात्तस्यरक्तंपिवन्तिते–ब्र-पु–
साथ ही साथ वह श्राप भी देते हैं—

पितरस्तस्यशापंदत्वाप्रयान्तिच-नागरखण्ड-!

फिर इस अभिशप्त परिवार को जीवन भर कष्ट-ही सहन करना पड़ता है।उस परिवार में पुत्र नही उत्पन्न होता ,कोई निरोग नही रहता,लंबी आयु नही होती,किसी तरह का कल्याण प्राप्त नही होता और मरने के बाद नरक भी जाना पड़ता है।

तत्रवीराजायन्तेनारोग्यंशतायुष:।

श्रेयोधि गच्छन्तियत्रश्राद्धं विवर्जितम्–हारीत–

श्राद्धमेतन्नकुर्वाणो नरकंप्रति पद्यते–विष्णु स् —

उपनिषद् में भी कहा गया है–#देवपितृकार्याभ्यांन_प्रमदितव्यम्–तै-उप-१-११-१अर्थात देवता तथा पितृ कार्यो में मनुष्य को कदापि प्रमाद नही करना चाहिये।
प्रमाद से प्रत्यवाय होता है।

पितरों को श्राद्ध प्राप्ति कैसे होती है?

यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि श्राद्ध में दी गयी अन्न आदि सामग्रियां पितरों को कैसे मिलती है, क्योकि विभिन्न कर्मो के अनुसार मृत्यु के वाद जीव को भिन्न-भिन्न गति प्राप्त होती है।
कोई देवता,कोई पितर, कोई प्रेत ,कोई हाथी, कोई चींटी ,कोई वृक्ष, कोई तृण,!

श्राद्ध में दिए गए छोटे से छोटे पिंड से हाथी का पेट कैसे भरेगा?
इसी प्रकार चींटी इतने बड़े पिंड को कैसे खा सकती है?
देवता अमृत से तृप्त होते हैं, पिण्ड से उन्हें कैसे तृप्ति मिलेगी ?

इन प्रश्नों का शास्त्र ने सुस्पष्ट उत्तर दिया है कि नाम गोत्र के माध्यम से विश्वेदेव एवं अग्निश्वात्त आदि दिव्य पितर हव्य-कब्य को पितरों प्राप्त करा देते हैं।
यदि पिता देवयोनि को प्राप्त हो गया तो दिया गया अन्न उसे वहां अमृत रूप होकर प्राप्त हो जाता है।मनुष्य योनि में अन्न रूप में तथा पशु योनि में तृण रूप में उसे उसकी प्राप्ति होती है।नागादि योनियों में वायु रूप से ,यक्ष योनि में पान रूप से,तथा अन्य योनियों में भी उसे श्राद्धीय वस्तु भोगजनक तृप्तिकर पदार्थो के रूप में प्राप्त होकर अवश्य तृप्त करती है—

नाम मन्त्रास्तथादेशा भवन्त रगतानपि ।

प्राणिन: प्रीणयन्त्येते तदाहारत्व मांगतान्।।

देवोयदि पिता जात: शुभ कर्मानु योगत:!

तस्यान्नममृतंभूत्वादेव त्वेप्यनु गच्छति ।।

मर्तयत्वे ह्यन्न रूपेण पशुत्वे तृणं भवेत्।

श्राद्धान्नं वायु रूपेण नागत्वे प्युपतिष्ठति।।

पानंभवति यक्षत्वे नाना भोगकरं तथा–÷

जिस प्रकार गोशाला में भूली माता को बछड़ा किसी-न- किसीप्रकार ढूढ ही लेता है,उसी प्रकार मन्त्र तत्तद् वस्तुजात को प्राणी के पास किसी न- किसी प्रकार पहुंचा ही देता है।
नाम गोत्र,ह्रदय की श्रद्धा एवं उचित संकल्प पूर्वक दिए हुए पदार्थो को भक्तिपूर्वक उच्चारित मन्त्र उनके पास पहुंचा देता है।
जीव चाहे सैकड़ो योनियों को भी पार क्यो न कर गया हो तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।

यथागोष्ठे प्रणष्टां वै वत्सो विंदेत मातरम्।

तथा तंनयते मन्त्रो जंतुर्यत्रा वतिष्ठते।।

नामगोत्रं मन्त्रश्च दत्त मन्नंनयन्ति तम्।

अपियोनिशतं प्राप्तां स्तृप्तिस्ताननु गच्छति।

#नामगोत्रंपितृणाम्तुप्रापकंहव्यकव्ययो:! श्राद्धस्यमन्त्रस्तस्तत्त्वमुपलभ्येत्भक्तित:!!

अग्निश्वात्ताद यस्तेषा मधिपत्ये व्यवस्थिता:!

नामगोत्रास्तथादेशा भवन्त्युद्भवतामपि!!

—-#ब्राह्मणभोजनसेभीश्राद्धकीपूर्णता!!
सामान्यतः श्राद्ध की दो प्रकिया है—१पिण्डदान और २-ब्राह्मण भोजन
मृत्यु के बाद जो लोग देवलोक या पितृलोक में पहुंचते हैं वे मन्त्रो द्वारा बुलाये जाने पर उन -उन लोको से तत्क्षण श्राद्ध देश मे आ जाते हैं और निमंत्रित ब्राह्मणों के माध्यम से भोजन कर लेते हैं।
सूक्ष्मग्राही होने से भोजन के सूक्ष्मकणों के आघ्राण से उनका भोजन हो जाता है, वे तृप्त हो जाते हैं।वेद ने बताया है कि ब्राह्मणों को भोजन कराने से वह पितरों को प्राप्त हो जाता है—-:

इम मोदनंनिदधे ब्राह्मणेषु विष्टारिणम्लोकजितं स्वर्गम्।अथर्व-४-३४-८)

(इमं ओदनम् )इस ओदनोपलक्षित भोजन को (ब्राह्मणेषु नि दधे)ब्राह्मणों में स्थापित कर रहा हूं ।यह भोजन विस्तार से युक्त है और स्वर्ग लोक को जीतने वाला है।
इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए मनु ने लिखा है—:

यस्यास्येन सदास्न्नती हव्यानि त्रिदिवौकस:!

कव्यानि चैवपितरः किंभूतमधिकंतत:!

अर्थात ब्राह्मण के मुख से देवता हव्य को और पितर क़व्य को ग्रहण करते हैं।
पितरों के लिये लिखा है-कि ये अपने कर्मवश अंतरिक्ष मे वायवीय शरीर धारण कर रहते हैं।अंतरिक्ष मे रहनेवाला इन पितरों को श्राद्धकाल आ गया है—–यह सुनकर ही तृप्ति हो जाती है।
ये मनोजव होते हैं अर्थात इन पितरों की गति मन की गति की तरह होती है।ये स्मरण से ही श्राद्ध देश मे आ जाते हैं और ब्राह्मणों के साथ भोजन कर तृप्त हो जाते हैं।इनको सब लोग इसलिये नही देख पाते क्योकि इनका शरीर वायवीय होता है–!

तस्य_तेपितरः श्रुत्वाश्राद्धकालमुपस्थितम्।

अन्योन्यंमनसाध्यात्वासम्पतन्तिमनोजवा:!!

ब्राह्मणैस्तेसहास्नन्तिपितरो ह्यन्तरिक्षगा:!

वायुभूतास्तुतिष्ठन्तिभुक्त्वायान्तिपरांगतिम्।कूर्म-उ वि२२!३-४

इस विषय मे मनुस्मृति में भी कहा गया है–श्राद्ध के निमित्त ब्राह्मणों में पितर गुप्त रुप सेनिवास करते है।
प्राणवायु की भांति उनके चलते समय चलते हैं और वैठते समय वैठते है।श्राद्धकाल मे निमंत्रित ब्राह्मणों के साथ ही प्राणरूप या वायु रूप में पितर आते हैं—–!:

निमंत्रितान्हिपितरउपतिष्ठन्तितान्_द्विजान्।

वायुबच्चानुगच्छन्ति_तथासीनानुपासते।।मनु-३/१८९

मृत्यु के उपरांत पितर सूक्ष्म शरीर धारी होते हैं, इसलिये उनको कोई देख नही पाता।शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि—-:

तिरइववैपितरो_मनुष्येभ्य:”(२!३!४!२१)

अर्थात सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण पितर मनुष्यो से छिपे हुए से होते हैं। अतएव सूक्ष्म शरीरधारी होने के कारण ये जल अग्नि तथा वायु प्रधान होते हैं, इसलिये लोक -लोकान्तरों में आने-जाने में उन्हें कोई रुकावट नही होती।

धना_भाव_मे_भी_श्राद्ध_की_सम्पन्नता???

धन की परिस्थिति सबकी एक -सी नही रहती । कभी कभी धन का अभाव हो जाता है, ऐसी परिस्थिति में जबकि श्राद्ध का अनुष्ठान अनिवार्य है,इस दृष्टि से शास्त्र ने धन के अनुपात से कुछ व्यवस्थाएं की है --
यदि अन्न खरीदने में पैसों का अभाव हो तो उस परिस्थिति में शाक से श्राद्ध कर देना चाहिये--- #तस्माच्छ्राद्धंनरो_भक्त्या_शाकै_रपि_यथा_विधि--!
यदि शाक खरीदने में भी असमर्थ हो तो तृण काष्ठ आदि को वेचकर द्रव्य एकत्रित करें और उन पैसों से शाक ख़रीदकर श्राद्ध करे--
#तृणकाष्ठार्जनंकृत्वा_प्रार्थयित्वा_वराटकम्।
#करोति_पितृ_कार्याणि_ततो_लक्षगुणो_भवेत्।।-
अधिक श्रम से यह श्राद्ध किया गया है-अतः फल लाख गुना होता है।
--देशविशेष और कालविशेष के कारण लकड़ियाँ भी नही मिलती !ऐसी परिस्थिति में शास्त्र ने बताया है कि घास से श्राद्ध हो सकता है। घास काटकर गाय को खिला दे।यह व्यवस्था पद्मपुराण ने दी है ।इसके साथ ही इसने इस सम्बंध की एक छोटी सी घटना प्रस्तुत की है--
 एक व्यक्ति धन के अभाव से अत्यंत ग्रस्त था!उसके पास इतना पैसा नही था कि शाक खरीदा जा सके ।इस तरह वह शाक से भी श्राद्ध करने की स्थिति में वह नही था।आज ही श्राद्ध तिथि थी।'"कुतप काल "भीआ पहुंचा था।इस काल के वीतने पर श्राद्ध नही हो सकता था।वेचारा घबरा गया--रो पड़ा--श्राद्ध करे तो कैसे करें??एक विद्वान ने उसे सुझाया --अभी कुतप काल है, शीघ्र ही घास काटकर पितरो के नाम पर गाय को खिला दे ।वह दौड़ गया और घासकाटकर गायों को खिला दी ।इस श्राद्ध के फलस्वरूप उसे देवलोक की प्राप्ति हुई --
#एतत्_पुण्य_प्रसादेन_गतोसौसुरमन्दिरम्-
 ऐसी भी परिस्थिति आ जाती है कि घास का भी मिलना सम्भव नही होता।तब श्राद्ध कैसे करें??
शास्त्र ने इसका समाधान यह किया है कि श्राद्धकर्ता को देश कालवश जब घास का भी मिलना सम्भव न हो ,तब श्राद्ध का अनुकल्प यह है कि श्राद्धकर्ता एकांत स्थान में चला जाये।दोनों भुजाओं को उठाकर निम्नलिखित श्लोक से पितरो की प्रार्थना करे--
#न_मेस्ति_वित्तं_न_धनं_च_नान्यच्छ्राद्धोपयोग्यं_स्वपितृन्नतोस्मि।
#तृप्यन्तु_भक्त्या_पितरो_मयेतौ_कृतौ_भुजौ वर्तम्नि_मारुतस्य!!
 अर्थात हे मेरे पितृगण ।मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है ,न धान्य आदि है।हाँ मेरे पास आपके लिए श्रद्धा और भक्ति  है।में इन्ही के द्वारा तृप्त करना चाहता हूं।आप तृप्त हो जाये।मैंने(शास्त्र की आज्ञा के अनुरूप )दोनों भुजाओं को आकाश में उठा रखा है।
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         #यह_स्मरण_अवश्य_रखे!!
 श्राद्ध कार्य मे साधन धन सम्पन्न व्यक्ति को वित्तशाठ्य (कंजूसी) नही करनी चाहिये---
#वित्तशाठ्यम्_न_समाचरेत्।अपने उपलब्ध साधनों से विशेष श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध करना चाहिये।
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 उपयुक्त अनुकल्पो से यह स्पष्ट प्रतीत हो जाता है कि किसी- न- किसी तरह श्राद्ध को अवश्य करे।शास्त्र ने तो स्पष्ट शब्दों में श्राद्ध का विधान दिया है और न करने का निषेध भी किया है।
 श्राद्ध करे ही---
#अतोमूलै:#फलैर्वापितथाप्युदकतर्पणै:#पितृतृप्तिंप्रकुर्वीत् -------!!
श्राद्ध छोड़े नही---
#नैव_श्राद्धम्_विवर्जयेत्।

||व्यर्थ कुछ लिखने से अच्छा है कुछ सार्थक लिखे||

श्राद्ध के अधिकारी कौन???

पिता का श्राद्ध करने का अधिकार मुख्य रूप से पुत्र को ही है।बहुत पुत्र होने पर अंत्येष्टि से लेकर एकादशाह तथा द्वादशाह की सभी क्रियाएं ज्येष्ठ पुत्र को करनी चाहिये।
विशेष परिस्थिति में बड़े भाई की आज्ञा से छोटा भाई भी कर सकता है।यदि सभी भाइयों का संयुक्त परिवार हो तो वार्षिक श्राद्ध भी ज्येष्ठ पुत्र के द्वारा एक ही जगह सम्पन्न हो सकता है।यदि पुत्र अलग-अलग हो तो उन्हें वार्षिक श्राध्द अलग अलग करना चाहिये—-!:

मृतेपितरिपुत्रेणक्रियाकार्याविधानत:!

वहव:स्युर्यदापुत्रा:पितुरेकत्रवासिनः।।

सर्वेषांतुमतंकृत्वाज्येष्ठेनैवतु यत्कृतम्।

द्रव्येणचाविभक्तेनसर्वेरैवकृतं भवेत्।।—वीरमित्रोदय श्रा0प्र०में प्रचेता का वचन)

एकादशाद्या:क्रमशो ज्येष्ठस्य विधिवत् क्रिया:।

क़ुर्युर्नैकेकश: श्राद्धमाब्दिकं तु प्रथक् प्रथक्।।–उपरोक्त–

: यदि पुत्र न हो तो शास्त्रों में श्राद्धाधिकारी के लिये विभिन्न व्यस्थाये प्राप्त है।स्मृतिसंग्रह तथा श्राद्धकल्पलता के अनुसार श्राद्ध के अधिकारी पुत्र पौत्र प्रपौत्र दौहित्र(पुत्री का पुत्र)भाई भतीजा भानजा पिता पत्नि माता पुत्र वधु वहिन सपिंड(स्वयं से लेकर पूर्व की सात पीढ़ी तक का परिवार)तथा सोदक (आठवी से लेकर चौदहवीं पीढ़ी तक के परिवार) कहे गए हैं!यथा—-:

मूलपुरुषमारभ्य सप्तमपर्यंतं सपिंडा:,अष्टमारभ्य चतुर्दशपुरूषपर्यंतं सोदका:,पंचदशमारभ्य एकविंशतिपर्यन्तं सगोत्रा:।पित्रादयस्त्रयश्चैव तथा तत्पूर्वजास्त्रय:।।

सप्तम:स्यात्स्वयं चैव तत्सापिण्ड्यम् वुधै:स्मृतम्।
सापिंड्यम् सोदकं चैव सगौत्रम् वै क्रमात्।।

एकैकं सप्तकं चैकं सापिण्ड्यकमुदाहृतम्।।–लघवाश्वलायन स्मृति–२०/८२-८४)

कहे गए है–इनमें पूर्व -पूर्व के न रहने पर क्रमश: बाद के लोगो का श्राद्ध करने का अधिकार प्राप्त है।
पुत्र पौत्राश्च तत्पुत्रः पुत्रिका पुत्र एव च।
पत्नि भ्राता च तज्जश्च पिता माता स्नुषा तथा!!

भगिनी भागिनेयश्च सपिंड: सोदकस्तथा।
असन्निधाने पूर्वेषामुत्तरे पिण्डदा:स्मृताः।।(स्मृति-सं०,श्राध्द०कल्प०)

विष्णुपुराण के वचन अनुसार पुत्र पौत्र प्रपौत्र भाई भतीजा अथवा अपनी सपिंड सन्तति में उत्पन्न हुआ पुरुष ही श्राद्ध क्रिया करने अधिकारी होता है।यदि इन सबका अभाव हो तो समानोदक की सन्तति अथवा मातृपक्ष के सपिंड अथवा समानोदक को इसका अधिकार है।मातृकुल और पितृकुल दोनों के नष्ट हो जाने पर स्त्री ही इस क्रिया को करे अथवा(यदि स्त्री भी न हो तो)साथियों में से ही कोई करे या बाँधवहीन मृतक के धन से राजा ही उसके प्रेत कर्म करावे।

पुत्र:पौत्र:प्रपौत्रोवा भ्राता वा भ्रातृसन्तति:!
सापिण्डसन्ततिर्वापि क्रियार्हो नृप जायते!!

तेषामभावे सर्वेषां समानोदक सन्तति:!
मातृपक्ष सपिंडेन सम्बद्धा ये जलेन वा ।

कुलद्वेपि चोच्छिन्नो स्त्रिभि: कार्या: क्रिया नृप!!
सङ्घातान्तर्गतैर्वापि कार्या: प्रेतस्य च क्रिया:!उत्सन्नबन्धुरिक्थाद्वा कारयेदवनी पति:!!

हेमाद्रि के अनुसार पिता की पिण्डदानादि क्रिया पुत्र को ही करनी चाहिये।
(पुत्र के अभाव में पत्नी करे पत्नी के अभाव में सहोदर भाई को करनी चाहिये-)
पितु:पुत्रेण कर्तव्या पिण्डदानोदक क्रिया।
पुत्राभावे तु पत्नीस्यात् पत्न्यभावे तु सोदर:(हेमाद्रि में शंख का वचन)
मार्कण्डेय पुराण में बताया गया है कि चूंकि राजा सभी वर्णों का बन्धु होता है।अतः सभी श्राद्धाधिकारी जनों के अभाव होने पर राजा उसमृत व्यक्ति के धन से उसके जाति के बांधवों द्वारा भलीभांति दाह आदि सभी और्ध्वदैहिक क्रिया कराये।।–।।

सर्वाभावे तु नृपति:कारयेत तस्य रिक्वत:!
तज्जातीयेन वै सम्यग् दाहाद्या: सकला:क्रिया:!!

||सर्वेषामेव वर्णानां वांधवो नृपतिर्यत:||
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शास्त्रों में श्राद्ध के अनेक भेद है, किंतु यहाँ उन्ही श्राद्धों को उल्लेखित किया जाता है ,जो अत्यंत आवश्यक और अनुष्ठेय है—
मत्स्यपुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बताये गये है–

नित्यं नैमित्तिकं काम्यं त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते–!!

नित्य नैमित्तिक और काम्य -भेद से श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं||

यम स्मृति में पांच प्रकार के श्राद्ध का उल्लेख मिलता है–नित्य,नैमित्तिक, काम्य,वृद्धि और पार्वण–

नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्धमथापरम्।

पार्वणम् चेति विज्ञेयं श्राद्धं पञ्चविधं वुधै||

प्रतिदिन किये जाने वाले श्राद्ध को नित्य श्राध्द कहते हैं।इसमें विश्वेदेव नही होते तथा अशक्तावश्था में केवल जलप्रदान से भी इस श्राद्ध की पूर्ति हो जाती है—:

अहन्यहनि यच्छ्राद्धम् तन्नित्यमिति कीर्तितम्!

वैश्विदेवविहीनं तदशक्तावुदकेन तु!!

तथा एकोदिष्ट श्राद्धको नैमित्तिक श्राध्द कहते हैं, इसमें भी विश्वेदेव नही होते ।किसी कामना की पूर्ति निमित्त किये जाने वाले श्राद्ध को काम्यश्राद्ध कहते हैं!
वृद्धिकाल में पुत्रजन्म तथा विवाहादि मांगलिक कार्य मे जो श्राद्ध किया जाता है, उसे वृध्दि श्राद्ध (नांदिश्राद्ध)कहते हैं।पितृपक्ष, अमावश्या ,अथवा पर्व की तिथि आदि पर जो सदैव (विश्वेदेव सहित) श्राद्ध किया जाता है उसे पार्वण श्राद्ध कहते हैं||
विश्वामित्र स्मृति तथा भविष्यपुराण नित्य,नैमित्तिक, वृद्धि,पार्वण ,सपिण्डन, गोष्ठी ,शुद्धयर्थ कर्मांग,दैविक,यात्रार्थ,तथा पुष्ट्यर्थ –ये द्वादश प्रकार के श्राद्ध बताये गये है—-÷

नित्यं नैमित्तिकं काम्यं वृद्धिश्राद्ध सपिंडनम्।

पार्वणम् चेति विज्ञेयं गोष्ठीम् शुद्धयर्थमष्टकम्।।

कर्मागं नवमं प्रोक्तं दैविकं दशमं स्मृतम्!

यात्रास्वेकादशं प्रोक्तं पुष्ट्यर्थं द्वादशं स्मृतम्।।

——–ये बारह प्रकार के श्राद्ध बताये गये है ।प्रायः सभी श्राद्धों का अंतर्भाव उपर्युक्त पञ्चश्राद्धों में हो जाता है।
जिस श्राद्ध में प्रेतपिण्ड का पितृपिण्डो में सम्मेलन किया जाये,उसे सपिण्डन श्राध्द कहते है।
समूहोंमें जो श्राद्ध किया जाता है, उसे गोष्ठीश्राद्ध कहते हैं।शुद्धि के निमित्त जिस श्राद्ध में ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है ,उसे शुद्धयर्थ श्राद्ध कहते हैं।गर्भाधान, सीमन्तोनयन,तथा पुंसवन आदि संस्कारो के समय जो श्राध्द किया जाता है उसे कर्मांग श्राद्ध कहते हैं।सप्तमी आदि तिथियों में विशिष्ठ हविष्य के द्वारा देवताओं के निमित्त जो श्राध्द किया जाता है, उसे दैविक श्राध्द कहते हैं!तीर्थ के उद्देश्य से देशांतर जाने के समय घृतद्वारा जो श्राद्धकिया जाता है ,उसे यात्रार्थश्राध्द कहते है!शारीरिक अथवा आर्थिक उन्नति के लिये जो श्राद्ध किया जाता है,उसे पुष्ट्यर्थश्राध्द कहते हैं।

उपर्युक्त सभी श्राद्ध श्रोत स्मार्त्त –भेद से दो प्रकार के होते है।पिण्डपितृयाग–÷÷
(अमावश्यायां पिण्डपितृयाग:–(इस वचन के अनुसार पिंडपितृयाग “अमावश्या के लिए होता है ।इस याग को करने का अधिकार केवल अग्निहोत्री को है)को श्रोतश्राद्ध कहते हैं-और-एकोदिष्ट ,पार्वण ,तथा तीर्थश्राद्ध से लेकर मरणतक के श्राद्ध को स्मार्त श्राद्ध कहते हैं।

श्राद्ध के ९६अवसर है।बारह मास की अमावश्याएँ ,सत्ययुग,त्रेतादि,युगों की प्रारम्भ की चार युगादि तिथियाँ,मनुओं के आरंभ की चौदह,मन्वादि तिथियां, बारह संक्रांतियाँ, बारह वैधृति योग,बारह व्यतीपात योग,पंद्रह महालय श्राद्ध(पितृपक्ष)पांच अष्टका,पांच अनवष्टका,तथा पांच पूर्वेद्यु:–ये ९६अवसर श्राद्ध के लिये है–||

अमायुगमनुक्रान्तिधृतिपातमहालया:!

अष्टकान्वष्टकापूर्वेद्यु:श्राद्धैर्नवतिश्च षट्||

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